सेवा और बलिदान - एक भारतीय परंपरा

70 वर्षों से संयुक्त राष्ट्र शांति अभियान बहुपक्षवाद और अंतरराष्ट्रीय एकजुटता का, संगठन के उच्च आदर्शों की अभिव्यक्ति का प्रकाशपुंज रहा है। सियरा लियोन से लेकर…
[vc_row][vc_column][vc_column_text]70 वर्षों से संयुक्त राष्ट्र शांति अभियान बहुपक्षवाद और अंतरराष्ट्रीय एकजुटता का, संगठन के उच्च आदर्शों की अभिव्यक्ति का प्रकाशपुंज रहा है। सियरा लियोन से लेकर कंबोडिया तक और तिमोर लेस्ते, नामीबिया, अल सल्वाडोर से लेकर विश्व के अनेक देशों में संयुक्त राष्ट्र शांति सैनिकों ने अमन का संदेश दिया है। शांति, सुरक्षा और समृद्धि के लिए अंतरराष्ट्रीय समुदाय के सबसे बुद्धिमत्तापूर्ण निवेश का नाम है संयुक्त राष्ट्र शांति सेना।
शांति सेना के अभूतपूर्व अभियान में भारत की भागीदारी का कोई सानी नहीं है। 1950 से भारत के 2,00,000 सैन्यकर्मियों ने शांति सेना की अनेक मुहिम में अपना योगदान दिया है। किसी देश द्वारा इतनी बड़ी संख्या में सैन्य सहायता प्रदान करने की यह अपनी अनूठी मिसाल है। किसी भी अन्य देश के मुकाबले सैनिकों की यह संख्या सर्वाधिक है। इससे न केवल विश्व में शांति और सौहार्द कायम करने की भारत की गहरी प्रतिबद्धता प्रदर्शित होती है, बल्कि यह भी साबित होता है कि वह संयुक्त राष्ट्र अधिकारपत्र पर कितना विश्वास करता है।

संयुक्त राष्ट्र शांति सेना का गौरवपूर्ण इतिहास लगभग 70 वर्ष पुराना है। 1950 में शांति सेना की स्थापना के बाद भारतीय सेना ने कोरिया युद्ध के दौरान पहली बार शांति अभियान में हिस्सा लिया। 1950-1954 के बीच चले इस युद्ध में शांति सेना में भारतीय मेडिकल कॉर्प्स भी शामिल थे। तत्पश्चात भारत ने 50 से अधिक अभियानों में हिस्सा लिया और उसके 168 सैनिकों ने दिलेरी का परिचय देते हुए अपने प्राणों की आहुति दी। संयुक्त राष्ट्र के सबसे खतरनाक और चुनौतीपूर्ण मिशन्स, जैसे दक्षिणी सूडान, कांगो, माली, मध्य अफ्रीकी गणराज्य और विश्व के दस अन्य मिशन्स में भारतीय शांति सैनिकों ने अपनी बहादुरी का लोहा मनवाया।

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1964 में साइप्रस में संयुक्त राष्ट्र शांति सेना के अभियान में तीन भारतीय फोर्स कमांडरों ने महत्वपूर्ण भूमिका निभाई : लेफ्टिनेंट जनरल प्रेम सिंह ज्ञानी, जनरल कोडंडेरा सुबैय्या थिमाया और मेजर जनरल दीवान प्रेम चंद। जनरल थिमाया भारतीय सेना के सबसे विभूषित (डेकोरेटेड) अधिकारियों में से एक थे और उन्हें कोरिया में अपने सैन्य योगदान के लिए पद्मभूषण से नवाजा गया था (यह देश का तीसरा सर्वोच्च नागरिक सम्मान है)।
1989 में मेजर जनरल (प्रकारांतर में लेफ्टिनेंट जनरल) प्रेम चंद को नामीबिया में फोर्स कमांडर के तौर पर तैनात किया गया। वह नामीबिया की आजादी के ऐतिहासिक दौर के गवाह भी रहे। मार्च 1992 से मार्च 1993 के दौरान लेफ्टिनेंट जनरल सतीश नांबियार यूगोस्लाविया में संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा बल के कमांडर रहे। उन्होंने शांति स्थापना आयोग के ‘खतरों, चुनौतियों और परिवर्तन के उच्च स्तरीय पैनल’ के लिए भी कार्य किया है।
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यूएनडोफ, गोलान पहाड़ी (फरवरी 2006 से): इज़राइल और सीरिया की सेना के बीच युद्धविराम को बरकरार रखने और दोनों देशों के बीच 1974 के निर्वासन समझौते के कार्यान्वयन पर निगरानी रखने के लिए फरवरी 2006 से भारतीय शांति सैनिक गोलन पहाड़ियों पर तैनात हैं। संयुक्त राष्ट्र निर्वासन पर्यवेक्षक बल (यूएनडोफ) को लॉजिस्टिक सुरक्षा देने के लिए 190 कर्मियों की एक बटालियन को तैनात किया गया है। 2012 से 2015 तक भारत के मेजर जनरल इकबाल सिंह सिंघे गोलन में फोर्स कमांडर थे। इसके बाद 2016 में मेजर जनरल जय शंकर मेनन ने कमान संभाली और सितंबर 2017 तक अपनी सेवाएं दीं। 'ए' लाइन के साथ मिशन ने अपना स्थान बदला और अब कैंप ज़ियाउनाई में भारतीय सैन्य बल तैनात है।[/vc_column_text][vc_column_text]

मिनुस्ताह/मिनुजुस्थ, हैती (दिसंबर 1997 से): हैती में संयुक्त राष्ट्र स्थिरता मिशन (मिनुस्ताह) और हैती में संयुक्त राष्ट्र कानूनी सहयोग मिशन (मिनुजुस्थ) के प्रारंभ से भारतीय सैन्यकर्मियों ने बढ़-चढ़कर इसमें योगदान दिया। यहां भारत के तीन फॉर्म्ड पुलिस बल अत्यंत सफल रहे। अप्रैल 2017 में संयुक्त परिषद ने संकल्प 2350 (2017) में निर्णय लिया कि 15 अक्टूबर, 2017 को मिनुस्ताह को विराम दे दिया जाए। तत्पश्चात इस मिशन को एक छोटे अनुवर्ती शांति स्थापना मिशन में तब्दील कर दिया जाएगा जोकि कानूनों का प्रवर्तन करने वाले संगठनों को मजबूती देने में सरकारी प्रयासों का समर्थन करेंगे, हैती राष्ट्रीय पुलिस को विकसित करेंगे और मानवाधिकारों की निगरानी, रिपोर्टिंग और विश्लेषण में संलग्न होंगे।[/vc_column_text][/vc_column][/vc_row]